भोर -Poem
मृगनयनी सी ताक रही मंजुल भोर झरोखों से देखो! दिनकर झांक रहा बर्फीली शिला के ओटो से मंद पवन छूकर जाती है नन्ही कोमल चिड़िया को अंगड़ाई लेकर तब देखे सुंदर विहंग जल उपवन को देखो तो ये कमल कुमुदिनी कितना मीठा मुस्काते हैं पत्तों पे ठहरी बूंदें छूकर दिनकर की किरणों को मोती हो जाते हैं अरे अरे रे रे रे देखो तो ये शशक गिलहरी कितना धूम मचाते है भोर की प्रथम किरण सेंककर अपनी नींद भगाते हैं जलधि में छिपा हुआ था दिनकर अब धीरे से गगन को छूता है पहली दूजी तीजी चौथी अरे रे देखो अनंत किरण से दिनकर पूर्ण उदय होता है !! -प्रियंका विश्वकर्मा